डॉ. देवशंकर नवीन (१९६२- )
ओ ना मा सी (गद्य-पद्य मिश्रित हिन्दी-मैथिलीक प्रारम्भिक सर्जना), चानन-काजर (मैथिली कविता संग्रह), आधुनिक (मैथिली) साहित्यक परिदृश्य, गीतिकाव्य के रूप में विद्यापति पदावली, राजकमल चौधरी का रचनाकर्म (आलोचना), जमाना बदल गया, सोना बाबू का यार, पहचान (हिन्दी कहानी), अभिधा (हिन्दी कविता-संग्रह), हाथी चलए बजार (कथा-संग्रह)।
सम्पादन: प्रतिनिधि कहानियाँ: राजकमल चौधरी, अग्निस्नान एवं अन्य उपन्यास (राजकमल चौधरी), पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ (राजकमल की कहानियाँ), विचित्रा (राजकमल चौधरीक की अप्रकाशित कविताएँ), साँझक गाछ (राजकमल चौधरी मैथिली कहानीयाँ), राजकमल चौधरी की चुनी हुई कहानियाँ, बन्द कमरे में कब्रगाह (राजकमल की कहानियाँ), शवयात्राक बाद देहशुद्धि, ऑडिट रिपोर्ट (राजकमल चौधरी की कविताएँ), बर्फ और सफेद कब्र पर एक फूल, उत्तर आधुनिकता कुछ विचार, सद्भाव मिशन (पत्रिका)क किछु अंकक सम्पादन, उदाहरण (मैथिली कथा संग्रह संपादन)।—सम्पादक
अदद्दी पेनकँ मजगुत
करबाक आवश्यकता
मिथिलाक सांस्कृतिक विरासत तकैत दूर धरि नजरि जाइत अछि, सबसँ पहिने देखाइत अछि जे उच्च शिक्षा प्राप्त करबाक, गम्भीर चिन्तन-मनन करबाक, छोट-सँ-छोट बात पर पर्याप्त विचार-विमर्श करैत निर्णय लेबाक प्रथा मिथिलामे पुरातन कालसँ अबैत रहैत रहल अछि। मुदा तकर अतिरिक्त ÷परसुख देबामे परमसुख'क आनन्द लेबाक आ जीवनक हरेक आचार एवं आचरणमे लयाश्रित रहबाक अभ्यास मैथिल जनकेँ निकेनाँ रहलनि अछि। स्वयं कष्ट सहिओ क', अपन सब किछु गमाइओ क', दोसरकेँ अधिकसँ अधिक प्रसन्नता देबाक आदति मिथिलामे बड़ पुरान अछि। प्रायः इएह कारण थिक जे अतिथि सत्कारमे मिथिलाक लोक अपना घरक थाड़ी-लोटा धरि बन्हकी राखि देलनि। दोसरकेँ सम्मान देबामे मैथिल नागरिक बढ़ि-चढ़ि कए आगू रहल अछि। भनसियाक काज कर'बला व्यक्तिकेँ महराज अथवा महराजिन, केस-नह-दाढ़ी-मोंछ साफ कर'बला व्यक्तिकेँ ठाकुर-ठकुराइन, घर-आँगनमे नौरी-बहिकिरनी आ सोइरी घ'रमे परसौतीक काज करबाब'वाली स्त्राकेँ दाय कहि
क' सम्बोधित करबाक प्रथा मिथिलामे एहने धारणासँ रहल होएत। ध्यान देबाक थिक जे मिथिलामे दादीकेँ, जेठ बहिनकेँ आ घ'रक अत्यधिक दुलारि बेटीकेँ दाय कहबाक परम्परा अछि।
अध्ययन, चिन्तन, मननक प्रथा मिथिलामे बड़ पुरान अछि। मुदा ई सत्य थिक जे अशिक्षेक कारणेँ मिथिला एतेक पछुआएलो रहल। गनल गूथल जे व्यक्ति अध्ययनशील भेलाह, से अत्यधिक पढ़लनि, जे नहि पढ़ि सकल, से अपन रोजी-रोटीमे लागल रहल। रोजी-रोटीक एक मात्रा आधार कृषि छल। विद्वान लोकनिक गम्भीर बहसमे बैसबाक अथवा ओहिमे हिस्सा लेबाक तर्कशक्ति, बोध-सामर्थ्य, आ पलखति रहै नहि छलनि, तेँ जे उपदेश देल जाइन, तकरा आर्ष वाक्य मानि अपन जीवन-यापनमे मैथिल लोकनि तल्लीन रहै छलाह। ईश भक्तिक प्रथा अहू कारणें मिथिलामे दृढ़ भेल। मानव सभ्यताक इतिहास कहै'ए जे प्रकृति-पूजन, नदी-पहाड़-भूमि-वृक्ष-पशु आदिक पूजन एहि करणेँ शुरुह भेल जे प्रारम्भिक कालमे जीवन-रक्षाक आधार इएह होइत छल। लोक अनुमान लगौलक जे सृष्टिक कारण, स्त्री-पुरुषक जननांग थिक, तेँ ओ लिंग पूजा आ योनि-पूजा शुरुह केलक, जे बादमे शिवलिंग आ कामयोनि पूजाक रूपमे प्रचलित भेल। बादमे औजार पूजन होअए लागल।... तें पूजा पाठमे लीन हेबाक प्रथा पुरान अछि। मिथिलामे ओहि समस्त पूजन-पद्धतिक अनुपालन तँ होइते रहल; पितर पूजा, ग्रामदेव पूजा, ऋतु पूजा, फसल पूजा, कुलदेव-देवी पूजा आदिक प्रथा बढ़ल। हमरा जनैत विद्वान लोकनि द्वारा ईश भक्तिक उपदेश एहि लेल देल जाइत रहल हएत जे ईश भक्तिमे लागल लोक धर्म-भयसँ सदाचार अनुपालनमे लागल रहत, सद्वृत्तिमे लीन रहत, सामाजिक मर्यादाक ध्यान राखत, भुजबल-धनबलक मदमे निर्बल-निर्धन पर अत्याचार नहि करत।...लक्ष्यपूर्ति त' नहिएँ भेल, उनटे लोक धर्मभीरु, पाखण्डी अन्धविश्वासी आ निरन्तर लोभी, स्वार्थी, अत्याचारी होइत गेल, परिणामस्वरूप आजुक मैथिल-प्रवृत्ति हमरा सभक सोझाँ अछि।
कृषि जीवनसँ समाजक कौटुम्बिक बन्हन एते मजगुत छल, जे भूमिहीनो व्यक्ति सम्पूर्ण किसानक दर्जा पबै छल। हरेक गाममे सब वृत्तिक लोक रहै छल। डोम, चमार, नौआ, कुमार, गुआर, धोबि, कुम्हार, कोइरी, बाह्मण, क्षत्राी... आदि समस्त जातिक उपस्थितिसँ गाम पूरा होइ छल। जमीन्दार लोकनि समस्त भूमिहीनकें जागीर दै छलाह, बाह्मण पुरहिताइ करै छलाह, नौआ केश कटै छलाह; कुमार ह'र-फार, चौकी केबाड़ बनबै छलाह; धोबि कपड़ा-बस्तर धोइ छलाह...। सम्पूर्ण समाज एक परिवार जकाँ चलै छल। सब एक दोसरा लेल जीबै छलाह, सब गोटए किसान छलाह, कृषि-सभ्यतामे मस्त छलाह।
सिरपंचमी दिनक ह'र-पूजा हो; दसमी, दीया-बाती, सामा-चकेबाक उत्सव हो; मूड़न-उपनयन-विवाह-श्राद्ध हो; छठि अथवा फगुआ हो... बिना सर्वजातीय, सर्ववृत्तीय लोकक सहभाग नेने कोनो काज पूर नहि होइ छल। एहिमेसँ बहुत बात तँ एखनहुँ बाँचल अछि, होइत अछि ओहिना, ओकर ध्येय कतहु लुप्त भ' गेल अछि।
मिथिलाक विवाहमे एखनहुँ जा धरि नौआ ब'रक कानमे हुनकर खानदान लेल गारि नहि देताह (परिहास लेल); धोबिन अपना केस संगें कनियाँक केस धो क' सोहाग नहि देतीह, विवाह पूर्ण नहि मानल जाइत अछि। ध्यान देबाक थिक जे एहि तरहेँ ओहि नौआकेँ कन्याक पिता आ धोबिनकेँ कन्याक माइक ओहदा देल जाइत अछि। मिथिलाक छठि पाबनि तँ अद्भुत रूपेँ सम्पूर्ण विरासतक रक्षा क' रहल अछि। नदीमे ठाढ़ भ' कए सूर्यकेँ अर्घ देबाक ई प्रथा जाति-धर्म समभावक सुरक्षा एना केने अछि जे समाजक कोनहुँ वर्गक सहभागक बिना ई पाबनि पूर्ण नहि होएत। नेत अइ स'ब टामे एकता आ समानताक सूत्र स्थापित रखबाक रहैत छल। ई कलंक स्वातन्त्रयोत्तरकालीन मिथिलाक स्वाधीन मानवक नाम अथवा वैज्ञानिक विकास, बौद्धिक उन्नति, औद्योगिक प्रगतिक माथ जाइत अछि, जे समस्त विकासक अछैत मानव-मनमे लोभ-द्रोह, अहंकार एहि तरहें भरलक छूआछूत, जाति-द्वेष, शोषण-उत्पीड़न बढ़ैत गेल; आ आइ मिथिला-समाज, जे त्याग, बलिदान, प्रेम, सौहार्द लेल ख्यात छल, सामाजिक रूपें खण्ड-खण्ड भेल अछि। पैघसँ पैघ आपदा, विभीषिका ओकरा एक ठाँ आनि कए, एकमत नहि क' पबै'ए। मिथलाक उदारता आ सामाजिकता ई छल जे ककरो बाड़ी-झारीमे अथवा लत्ती-फत्तीमे अथवा कलम-गाछीमे नव साग-पात, तर-तरकारी, फूल-फल होइ छल तँ सभसँ पहिने ग्रामदेवक थान पर आ पड़ोसियाक आँगनमे पहुँचाओल जाइ छल; कोनो फसिल तैयार भेलाक बाद आगों-राशि कोनो परगोत्री देल जाइ छल; खेतमे फसिल कटबा काल खेतक हरेक टुकड़ीमे एक अंश रखबारकेँ देल जाइ छल...ई समस्त बात सामाजिक सम्बन्ध-बन्धक मजगूतीक उदाहरण छल।
कोनो स'र-कुटुमक ओतएसँ कोनो वस्तु सनेसमे आबए, तँ ओ सौंसे टोलमे लोक बिलहै छल।...कहबा लेल कहि सकै छी जे ई मैथिलजनक जीवनक नाटकीयता आ प्रशंसा हेतु लोलुपता रहल होएत... मुदा तकर अछैत एहि पद्धति आ परम्पराक श्रेष्ठता आ सामाजिक मूल्य हेतु एकर आवश्यकतासँ मुँह नहि मोड़ल
जा सकैत अछि। गाममे कोनो बेटीक दुरागसनक दिन तय होइ छल, तँ बेटीक सासुरसँ आएल मिठाइ भरि गाममे बिलहल जाइ छल। तात्पर्य ई होइ छल जे भरि गामक लोक बूझि जाए, जे ई बेटी आब अइ गामसँ चल जाएत। ओहि बेटीकेँ भरि गामक लोक धन-वित्त-जातिसँ परे, ओहि बेटीकेँ अपना घ'रमे एक साँझ भोजन करबै छल। सब किछुक लक्ष्यार्थ गुप्त रहै छल। एकर अर्थ ई छल, जे सम्पूर्ण गाम अपन-अपन थाड़ी-पीढ़ी देखा कए ओहि बेटीकँ विवेककेँ उद्बुद्ध करै छल जे बेटी! आब तों ई गाम, ई कुल-वंश छोड़ि आन ठाम जा रहल छह, हमरा लोकनि अपन शील-संस्कृतिक ज्ञान तोरा देलियहु, सासुर जा कए, ओतुक्का शील-संस्कार देखि कए अपन विवेकसँ चलिह', आ अपन गाम, अपन कुल-शीलक प्रतिष्ठा बढ़बिह'। इएह कारण थिक जे पहिने कोनो बेटीक दुरागमनक दिन पैघ अन्तराल द' कए तय होइ छल। मुदा आब ई रिवाज एकटा औपचारिकता बनि कए रहि गेल अछि; गामक बेटीकें अपन बेटी मानिते के अछि?
मिथिलामे कोनो स्त्री संगें भैंसुर आ ममिया ससुरक वार्तालाप, भेंट-घाँट वर्जित रहल अछि, एते धरि जे दुनूमे छूआछूतक प्रथा अछि। आधुनिक सभ्यताक लोक एकरा पाखण्ड घोषित केलनि। परिस्थिति बदलै छै, त' मान्यताक सन्दर्भ बदलि जाइ छै, से भिन्न बात; मुदा एहि प्रथाकेँ पाखण्ड कहनिहार लोककेँ ई बुझबाक थिक जे ई प्रथा एहि लेल छल, जे एहि दुनू सम्बन्धमे समवयस्की हेबाक सम्भावना बेसी काल रहै छल। संयुक्त परिवारक प्रथा छल, कखनहुँ कोनो अघट घटि सकै छल। ई वर्जना एकटा शिष्टाचार निर्वहरण हेतु पैघ आधार छल। प्रायः इएह कारण थिक जे विवाह कालमे घोघट देबा लेल प्राथमिक अधिकार अही दुनू सम्बन्धीय व्यक्तिकेँ देल जाइ छनि। जाहि स्त्रीकेँ केओ भैंसुर अथवा ममिया ससुर नहि छनि, हुनकहि टा ससुर स्थानीय कोनो आन व्यक्ति घोघट दै छनि। घोघट देबाक प्रक्रियामे कतेक नैतिक बन्हन रहैत अछि, से देखू, जे सकल समाजक समक्ष भैंसुर, नव विवाहित भावहुक उघार माथकेँ नव नूआसँ झाँपै छथि आ बगलमे ठाढ़ ब'र ओहि नूआकेँ घीचिकए माथ उघारि दैत अछि, ई प्रक्रिया तीन बेर होइत अछि, अन्तिम बेर माथ झाँपले राखल जाइत अछि। अर्थात्, सकल समाजक सम्मुख ओ व्यक्ति प्रतिज्ञा करैत अछि--हे शुभे! हम, तोहर भैंसुर (ससुर) प्रण लैत छी, जे जीवन पर्यन्त तोहर लाजक रक्षा करब! एते धरि जे अग्नि, आकाश, धरती, पवनकेँ साक्षी राखि जे व्यक्ति तोरा संग विवाह केलकहु अछि, सेहो जखन तोहर लाज पर आक्रमण करतहु, हम तोहर रक्षा लेल तैयार रहब!
अही तरहेँ उपनयनमे आचार्य, बह्मा, केस नेनिहारि, भीख देनिहारि, डोम, चमार, नौआ, धोबि, कमार, कुम्हार आदिक भागीदारी; आ एहने कोनो आन उत्सव, संस्कारमे सामूहिक भागीदारी सामाजिक अनुबन्धक तार्किक आधार देखबैत अछि।
कहबी अछि जे मैथिल भोजन भट्ट होइ छथि। अइ कहबीक त'हमे जाइ तँ ओतहु एकर सांस्कृतिक, पारम्परकि सूत्रा भेटल। मिथिलाक स्त्राी, खाहे ओ कोनहु जाति-वर्गक होथि, तीक्ष्ण प्रतिभाक स्वामिनी होइत रहल छथि। मुदा परदा प्रथाक कारणें हुनकर पैर भनसा घरसँ ल' क' अँगनाक डेरही धरि बान्हल रहै छलनि। अधिकांश समय भनसे घरमे बितब' पड़नि। सृजनशील प्रतिभा निश्चिन्त बैस' नहि दैन। की करितथि! भोजनक विन्यासमे अपन समय आ प्रतिभा लगब' लगलथि। आइयो भोजनक जतेक विन्यास, तीमन-तरकारीक जतेक कोटि, चटनी आ अचारक जेतक विधान मिथिलामे अछि, हमरा जनैत देशक कोनहुँ आन भागमे नहि होएत। वनस्पतिजन्य औषधिकेँ सुस्वादु भोजन बनएबाक प्रथा सेहो मिथिलामे सर्वाधिक अछि।... आब जखन एते प्रकारक भोजन ओ बनौलनि, तँ उपयोग कतए हैत?... घरक पुरुष वर्गकेँ खोआओल जाएत। सर्वदा एहिना होइत रहल अछि, जे कोनो क्रियाक विकृति प्रचारित भ' जाइत अछि, मूल तत्व गौण रहि जाइत अछि। मैथिल पेटू होइत अछि, से सब जनै'ए, मुदा मिथिलाक स्त्रीमे विलक्षण सृजनशीलता रहलैक अछि, से बात कम प्रचारित अछि। जे स्त्री कामकाजी होइ छलीह, खेत-पथार जा कए शरीर श्रम करै छलीह, गामक बाबू बबुआनक घर-आँगन नीपै, लेबै छलीह, तिनकहु कलात्मक कौशल हुनका लोकनिक काजमे देखाइ छल।
स्त्री जातिक कला-कौशलक मनोविज्ञानक उत्कर्ष तँ एना देखाइ अछि जे हुनका लोकनिक उछाह-उल्लास धरिमे जीवन-यापनक आधार आ घर-परिवारक मंगलकामना गुम्फित रहै छल। जट-जटिन लोक नाटिका विशुद्ध रूपसँ कृषि कर्मक आयोजन थिक, जे अनावृष्टिक आशंकामे मेघक आवाहन लेल होइ छल, होइत अछि; सामा भसेबा काल गाओल जाइबला गीतमे सब स्त्री अपन पारिवारिक पुरुष पात्राक स्वास्थ्यक कामना करै छथि; विवाह उपनयनमे अपरिहार्य रूपें वृक्ष पूजा (आम, महु), नदी पूजा, प्रकृति पूजा आदि करै छथि। विभिन्न वृत्तिक लोकक अधिकार क्षेत्र पर नजरि दी, तँ नौआ, कमार, कुम्हार, डोम, धोबि... सबहक स्वामित्व निर्धारित रहैत आएल अछि। जाहि गाम अथवा टोल पर जिनकर स्वामित्व छनि, हुनकर अनुमतिक बिना केओ दोसर प्रवेश नहि क' सकै छलाह। ई लोकनि आपसी समझौतासँ अथवा निलामीसँ गामक खरीद-बिक्री करै छलाह। एहि व्यवहारमे
जजमानक कोनो भूमिका अथवा दखल नहि होइ छल।
हस्तकलाक कुटीर उद्योग एतेक सम्पन्न छल, जे सामाजिक व्यवस्थामे सब एक दोसरा पर आश्रित छल। सूप, कोनियाँ, पथिया, बखाड़ी, घैल, छाँछी, सरबा, पुरहर, मौनी, पौती, जनौ, चरखा, लदहा, बरहा, गरदामी, मुखारी, उघैन, कराम, खाट, सीक, अरिपन... सब किछु लुप्तप्राय भ' गेल। एते धरि जे ई शब्द आ क्रिया अपरिचित भेल जा रहल अछि। ढोनि केनाइ, भौरी केनाइ, केन केनाइ, पस'र चरेनाइ, झिल्हैर खेलेनाइ सन क्रिया, आ सुठौरा, हरीस, लागन, बरेन, जोती, कनेल, पालो, चास, समार, फेरा, पचोटा, ढोसि, करीन सन शब्द आब आधुनिक साहित्योमे कमे काल अबै'ए।
मिथिलाक एहेन विलक्षण विरासत--कला, संस्कृति आ जीवन-यापन पद्धतिक उत्कृष्ट उदाहरण सम्भावनाविहीन भविष्यक कारणेँ आ सामाजिक कटुताक कारणेँ हेराएल जा रहल अछि। नवीन शिक्षा पद्धतिसँ सामाजिक जागृति बढ़ल, मुदा ओहि जागृतिक समक्ष ठाढ़ भेल वैज्ञानिक विकास आ आर्थिक उदारीकरणक प्रभावमे अहंकारग्रस्त समृद्ध लोककँ लोलुपता आ क्षुद्र वृत्ति। संघर्ष जायज छल। अपन पारम्परिक वृत्ति आ हस्तकलामे, पुश्तैनी पेशामे लोककें अपन भविष्य सुरक्षित नहि देखेलै। ÷रंग उड़ल मुरूत' कथामे मायानन्द मिश्र आ ÷रमजानी' कथामे ललित मिथिलाक परम्परा पर आघात देखा चुकल छथि।...
ख'ढ़क घर आब होइत नहि अछि, घरामीक वृत्ति एहिना चल गेल। सीक'क प्रयोजन, खाटक प्रयोजन समाप्त भ' गेल, बचल-खुचल माल-जाल लेल नाथ-गरदामी आब प्लास्टिकक बनल-बनाएल डोरिसँ होअए लागल, बच्चाक खेलौना प्लास्टिकक होअए लागल। नौआ, कमार, धोबि, डोमक जागीर आपस लेल जा लागल। ओ लोकनि अपन पुश्तैनी पेशा छोड़ि आन-आन नोकरी चाकरीमे जाए लगलाह। स्त्री जाति आब भानस करबा लेल किताब पढ़ए लगलीह, फास्ट फूड खएबाक प्रथा विकसित भेल। मिथिला पेंटिंगकें आफसेट मशीन पर छपबा कए पूँजीपति लोकनि री-प्रोडक्शन बेच' लगलाह। जट-जटिन आ सामा-चकेबाक खेलक विडियोग्राफी देखाओल जाए लागल। गोनू झा, राजा सलहेस, नैका बनिजारा, कारू खिरहरि, लोरिकाइनि आदिक कथा छपा कए बिक्री होअए लागल, टेप पर रेकॉर्ड क' कए, अथवा सी.डी.मे तैयार क' कए, री-मिक्ससँ ओकर मौलिकतामे फेंट-फाँट क' कए लाक सुन' लागल, आ एकरा अपन बड़का उपलब्धि घोषित कर' लागल। ... अर्थात् जे लोककला लोकजीवनक संग विकसित आ परिवर्द्धित होइ छल, तकर अभिलेखनसँ (डकुमेण्टेशन) ओकरा स्थिर कएल जा लागल। लोकजीवनक संग अविरल प्रवाहित रहैबाली सांस्कृतिक-धारा आब अभिलेखागारमे बन्द रहत, ओकर विकासक सम्भावना स्थगित रहत।
अइ समस्त वृत्तिमे जुड़ल लोककें सम्मानित जीवन जीबै जोगर वृत्ति द' कए एकर विकासमान प्रक्रियाकें आओर तीव्र करबाक आवश्यकता छलै, मुदा जखन मिथिलाक लोके ओ ÷लोक' नहि रहि गेल अछि, तखन लोक-संस्कृति आ लोक-परम्पराक रक्षा के करत?
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