भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c) २०००-२०२२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.html , http://www.geocities.com/ggajendra   आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha   258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै। इंटरनेटपर मैथिलीक पहिल उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि, जे http://www.videha.co.in/   पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

 

(c)२०००-२०२२. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। सह-सम्पादक: डॉ उमेश मंडल। सहायक सम्पादक: राम वि‍लास साहु, नन्द विलास राय, सन्दीप कुमार साफी आ मुन्नाजी (मनोज कुमार कर्ण)। सम्पादक- नाटक-रंगमंच-चलचित्र- बेचन ठाकुर। सम्पादक- सूचना-सम्पर्क-समाद- पूनम मंडल। सम्पादक -स्त्री कोना- इरा मल्लिक।

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स्थायी स्तम्भ जेना मिथिला-रत्न, मिथिलाक खोज, विदेह पेटार आ सूचना-संपर्क-अन्वेषण सभ अंकमे समान अछि, ताहि हेतु ई सभ स्तम्भ सभ अंकमे नइ देल जाइत अछि, ई सभ स्तम्भ देखबा लेल क्लिक करू नीचाँ देल विदेहक 346म आ 347 म अंक, ऐ दुनू अंकमे सम्मिलित रूपेँ ई सभ स्तम्भ देल गेल अछि।

“विदेह” ई-पत्रिका: देवनागरी वर्सन

“विदेह” ई-पत्रिका: मिथिलाक्षर वर्सन

“विदेह” ई-पत्रिका: मैथिली-IPA वर्सन

“विदेह” ई-पत्रिका: मैथिली-ब्रेल वर्सन

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Friday, May 8, 2009

मैथिलीपुत्र प्रदीप

मैथिलीपुत्र प्रदीप

१. श्री मैथिली पुत्र प्रदीप (१९३६- )। ग्राम- कथवार, दरभंगा। प्रशिक्षित एम.ए., साहित्य रत्न, नवीन शास्त्री, पंचाग्नि साधक। हिनकर रचित "जगदम्ब अहीं अवलम्ब हमरसभक सुधि अहाँ लए छी हे अम्बे हमरा किए बिसरै छी यै" मिथिलामे लेजेंड भए गेल अछि।


आध्यात्मिक निबन्ध

ॐ (मा)

एकटा प्रश्न उठि सकैछ, जे मोक्ष कामीक लेल वैदिक कर्मक प्रयोजन? एकर उत्तर ई भऽ सकैछ जे यज्ञ यागादि कर्मक फलश्रुतिमे स्वर्ग प्राप्त करबाक बात कहल गेल अछि। मुदा जे व्यक्ति स्वर्ग नहि चाहैत होथि, मोक्षेटा चाहैत होथि, हुनका लेल वैदिक कर्मक आवश्यकता, ई वृहदारण्यकोपनिषद केर वचनसँ पुष्ट होइत अछि। यथा- “ तमेतं वेदानु वचनेनं ब्राह्मणाः विविदिषन्ति यज्ञेन, दानेन तपसा नाशकेन”।

अर्थात्- ब्राह्मणगण वेदाध्ययनसँ कामनारहित यज्ञ, दान एवं तपसँ ओहि ब्रह्मकेँ चिन्हबाक इच्छा करैत छथि। एहि वचनमे अनाशकेन अर्थात् कामनारहित “यज्ञ, दान, तप” विशेष महत्त्व रखैत अछि।

तात्पर्य जे वेदोक्त यज्ञादि कर्म जखन आशक्तिक संग कएल जाइत अछि, तखन ओहिसँ मात्र स्वर्गक भोग प्राप्त होइत अछि। परन्तु जखन बिना आशक्ति रखने निःस्वार्थ भावसँ कयल जाइत अछि, तखन काम-क्रोधसँ मुक्त भऽ कऽ कार्य केनिहारक चित्त शुद्ध भऽ जाइत अछि। ओऽ मोक्षक अधिकारी भऽ जाइत छथि।

श्रीमद्भगवदगीतामे भगवान् श्रीकृष्णक उक्ति अछि- अध्याय १८ (५-६)

 

यज्ञदान तपः कर्म न साज्यं कार्यमेव तत।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥

एतान्यापित कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।

कार्व्यानीति मे पार्थं निश्चितं मतमुत्तमम॥

 

अर्थात्- यज्ञ, दान, तप आदि कर्मक त्याग नहि करबाक चाही। मुदा ई समस्त कर्म निष्काम भावसँ करबाक चाही। अतएव उपनिषदक अनाशकेनएहि पदकेँ एहिठाम गीताक संगं त्यक्त्वा फलानि च पुष्ट करैत अछि।

अतएव जे मनुष्य अपन आन्तरिक कल्याण चाहैत छथि अर्थात् जन्म-मृत्युक बन्धनसँ मुक्त हेबाक इच्छा करैत छथि, हुनका वैदिक कर्मकाण्डक फलस्वरूप स्वर्गक भोग केर इच्छा नहि राखि कऽ निष्काम भावसँ भगवानक प्रसन्नताक लेल मात्र कार्य करबाक चाही। ई बात मुण्डकोपनिषदमे सेहो आयल अछि। १,,७.

मनुष्यक चित्त अनेक प्रकारक कुकर्मसँ मलिन भऽ गेल रहैत अछि। एहि सभ मैलक हटेबाक लेल सत् कर्म करब आवश्यक अछि। एहि सत्कर्मकेँ करबाक उद्देश्य होइत अछि वैदिक कर्म काण्ड। वेदोक्त कर्म कएलासँ चित्त शुद्ध होइत अछि। जकर बाद ब्रह्म विद्या अथवा ज्ञानक बात सुनलासँ सुफल भेटैत छैक।

उपनयन संस्कारक बाद वेदोक्त कर्म करबाक लोक अधिकारी होइत छथि। वेदक अन्तिम लक्ष्य मोक्षे प्राप्त करब थीक। ईश्वरक उपासना योगक अभ्यास, धर्मक अनुष्ठान, विद्या प्राप्ति, ब्रह्मचर्य व्रतक पालन तथा सत्संग आदि मुक्तिक साधन गानल गेल अछि। कर्मफलक प्राप्तिक हेतु पुनर्जन्मक प्रतिपादन आत्मोन्नत्तिक लेल संस्कारक निरूपण, समुचित जीवन-यापन हेतु वर्णाश्रमक व्यवस्था एवं जीवनक पवित्रता हेतु भक्ष्या-भक्ष्यक निर्णय करब वेदक मुख्य विशेषता थीक। कर्मकाण्ड, उपासना-काण्ड तथा ज्ञान-काण्ड एहि तीनूक वर्णन मुख्यतया वेदमे भेटैत अछि। यज्ञान्तर्गत देवताक पूजा, ऋषि-महर्षिक सत्संग तथा दान ई तीनू क्रिया एक संग होइत अछि। तहिना ब्रह्मचर्य पालनसँ ऋषि-ऋण, यज्ञ द्वारा देव-ऋण तथा संतानोत्पत्तिसँ पितृऋण मुक्त हेबाक आदर्श वाक्य वेदेमे प्राप्त होइत अछि।

पुत्र-वियोगक कारणेँ ई पक्का बैरागी भए गेलाह। गामसँ बाहर भए जंगले-जंगल एकान्तमे वास कए भजन-कीर्तन करए लगलाह। गामक लोकसभ बहुत दिन धरि पाछाँ कएलकनि जे अपने घुरि जाऊ, हमहु सभ अपनेक पुत्रक समान छी, अपनेकेँ कोनो कष्ट नै होएत। मुदा साहेब रामदास पर तकर कोनो प्रभाव नहि पड़लनि, उनटे जतए लोकक आवागमन देखथिन्ह, स्थानकेँ बदलि पुनः निर्जनस्थानमे चलि जाइत छलाह। लोकसभ किछु दिन धरि पाछाँ तँ केलकनि, मुदा अन्तमे हरि-थाकि कए जे ई आब पक्का बैरागी भए गेल छथि, तेँ हिनका आब तंग नहि कएल जाए, विचारि कए पाछाँ करब छोड़ि
देलकनि।

बैरागी भेलाक बाद ई देशक बहुतो भागमे भ्रमण कएलनि। भजन-कीर्तनक संग योग-साधनामे सेहो लीन भए गेलाह। योग-साधनामे सिद्धि प्राप्त कएलाक पश्चात् केओटीक निवासी बलिरामदासजीसँ दीक्षा ग्रहण कएलनि। दीक्षा ग्रहण कएलाक पश्चातो ई अनेक धर्म स्थानक भ्रमण करैत रहलाह। कहल जाइत अछि जे साहेबरामदास दण्ड-प्रणाम करैत-करैत जगन्नाथपुरी तक गेलाह। बाटमे बड़ कष्ट सहए पड़लनि, घाओ भए गेलनि, घाओमे पीब आबि गेलनि, मुदा दण्ड-प्रणाम ओऽ नहि छोड़लनि। दण्ड-प्रणाम करैत-करैत जगन्नाथपुरी तक गेलाह। जकर प्रमाण हुनकहि एक कवितासँ भेटैत अछि-

 

साधुके संगत धरि गुरुक चरण धरि,

आहे सजनी हमहु जाएब जगरनाथहि रेकी।

नहि केओ अन्नदाता संग नहि सहोदर भ्राता,

आहे सजनी माँगि भीखि दिवस गमाएब रे की।

सभ जग भेल भाला गुरुआ अठारह नाला,

आहे सजनी ओहिठाम केओ नहि छोड़ाओल रे की।

सिंह दरबाजा देखि मन मोर लुबधल,

आहे सजनी ओहिठाम पंडा पंडा बेंत बजारल रे की।

साहेब जे गुनि धुनि बैसलहुँ सिर धुनि,

आहे सजनी जगत जीवन निअराएल रे की।

 

गुरु बलिरामदास मुरिया रामपुरक एक महात्मा शिष्य छलाह तथा अपन गाम केओटा (केओटी)क घनघोर जंगलमे योग साधना करैत छलाह। ई योग साधनामे निष्णात् छलाह। कहल जाइत अछि जे गुरुक बिना वास्तविक ज्ञान असम्भव अछि आ तेँ साहेबरामदास एक योग्य गुरुसँ दीक्षा लए, योग-साधनामे सिद्धि प्राप्त कए लेलनि। योग क्रिया पर सिद्धि प्राप्त कए लेलाक बाद जन्म-मरणसँ छुटकारा पाबि जेबाक पूर्ण विश्वास भए गेलनि, से गुरुक प्रसादहिसँ। मोक्ष प्राप्तिमे आब कोनो सन्देह नहि रहि गेलनि, जे जीवनक चरम लक्ष्य थिक। बलिरामदास हिनक दीक्षा गुरु छलथिन, तकर प्रमाण हिनकहि एक कवितासँ भेटैछ-

 

“गुरु बलिराम चरण धरि माथे, साहेब हरि अपनाया है।

अब तौ जरा-मरण छुटि जैहे, संशय सकल मेटाया है”।

 

कृष्णक ई अनन्य भक्त छलाह। जगन्नाथपुरीक यात्राक क्रममे बाटहिमे हिनका स्वयं भगवान श्री कृष्ण दर्शन देने छलथिन। आब तँ ई कृष्णक ध्यानमे दिन-राति लागल रहैत छलाह। समाधिस्थ कालमे तँ दुनियाँक कोनो वस्तुक ध्यान नहि रहैत छलनि, ध्यान रहैत छलनि तँ एक मात्र भगवान श्री कृष्ण। जन-श्रुति तँ ईहो अछि जे भगवानक भजनक कालमे जखन ई नाच करैत छलाह तँ स्वयं भगवान श्री कृष्ण सेहो उपस्थित भए संग दैत छलथिन।

साहेब रामदास अनेक तीर्थ-स्थलक दर्शन कएलनि। सांसारिक मोह-मायाकेँ त्यागि वैरागी भए गेलाह, मुदा मिथिला भूमिकेँ नहि त्यागि सकलाह। एक पदमे ओऽ लिखैत छथि, “मिथिला नगरी तोर दान बिनु साहेब होइछ बेहाल” तथा दोसर पदमे “साहेब करुणा करए शीश धुनि मिथिला होइछ अन्धेरि”। एहि पद सभसँ मिथिलाक प्रति हुनक प्रेमक सहज अनुमान लगाओल जाए सकैत अछि। धन्य ई मिथिला भूमि ओऽ धन्य महात्मा साहेब रामदास।

पहिने कहि चुकल छी जे ई जंगलमे एकान्त वास कए भजन-कीर्तन कएल करथि। जतए-जतए ई जाथि ताहि-ताहि ठाम ई अपन खन्ती गारि कुटियाक निर्माण कए एक पाकड़िक गाछ अवश्य रोपि दैत छलाह। हिनक अनेक जगह पर योगमढ़ी छल आ सबहि ठाम ई पाकड़िक गाछ अवश्य रोपि दैत छलाह। हिनक अन्तिम योगमढ़ी दरभंगा जिलाक पचाढ़ीगाममे अछि, जे पूर्वमे बूढ़वनक नामे विख्यात छल। एहू ठाम पाकड़िक गाछ रोपने छलाह, जे अद्यावधि वर्तमान अछि। पल्लवित एहि गाछक शोध मानवशास्त्री लोकनि एखनहु कए रहल छथि।

कमलाक तट पर स्थित पचाढ़ी गामक वन आ वृन्दावनक तुलना करब कठिन भए जाइत छल। वृन्दावनसँ एको रत्ती कम शोभा पचाढ़ी (बूढ़वनक) नहि छल। मोरक नाच, सुगाक गान, नाना प्रकारक वन्यजीव प्राणीक निर्भय विचरण करब, भिन्न-भिन्न लता-पुष्पसँ शोभित वनक दृश्य लोककेँ सहजहि आकृष्ट कए लैत छल। एहि स्थानक प्रशंसामे कवीश्वर चन्दा झा लिखैत छथि

 

“पाकड़ि वृक्ष सएह कमला तट जएह भजन कुटी विश्राम।

चन्द्र सुकवि मन धरम परमधन धन्य पचाढ़ी ग्राम”॥

 

पचाढ़ी स्थानक शोभा आब नहि रहि सकल, जे पहिने एक निर्जन स्थान छल, ताहि ठाम आब ग्राम अछि, खेती-पथारी कएल जाइत अछि। वनक तँ आब निशानो नहि रहि गेल अछि, तथापि साहेब रामदासजीक समाधि-स्थलक चारूकात मन्दिर सेहो एक-दू नहि छओ-सातटा अछि। सभमे भोग-रागक व्यवस्था, पुजेगरीक संग-संग सहायकक व्यवस्था सभ मन्दिरमे फराक-फराक अछि। लगभग पाँच कट्ठा जमीनमे फुलबारी अछि। आगत-अतिथिक स्वागत यथासाध्य एखनहु कएल जाइत अछि। साहेब रामदासक नाम पर एकटा संस्कृत महाविद्यालय अछि, जाहिमे निर्धन छात्रकेँ स्थान दिससँ रहबाक व्यवस्था ओ मुफ्त भोजनक व्यवस्था कएल जाइत अछि।

पचाढ़ीस्थान मिथिलाक वैभवशाली स्थानमेसँ सर्वप्रमुख अछि। एकर वैभवशालीक पाछाँ राजदरभंगाक महत्वपूर्ण योगदान अछि। तत्कालीन दरभंगा मिथिलेश नरेन्द्रसिंह निःसन्तान छलाह। हुनक पत्नी रानी पद्मावती अतिथि-सत्कार, पूजा-पाठक निमित्त ३०० (तीन सए) बीघा जमीन पचाढ़ी स्थानकेँ दानस्वरूप देने छलथिन। मुदा कहल जाइत अछि जे साहेब रामदास ओहि जमीनक दान-पत्रकेँ प्रज्वलित अग्निमे फेकि देलखिन। शिष्य लोकनिकेँ भिक्षाटन वृत्तिसँ आगत-अतिथिक सेवा सत्कार करए पड़ैत छलनि, जाहिसँ ओ लोकनि तंग आबि गेलाह आ फलस्वरूप ओऽ दान-पत्र पुनः महारानीसँ प्राप्त कए चुप-चाप राखि लेलनि, जे एखनहु धरि सम्पत्तिक रूपमे विद्यमान अछि। किछु जमीन भक्त लोकनि वेतियामे सेहो देने छथि। योग्य शिष्य सभ एहि सम्पत्तिकेँ बढ़ाए लगभग हजार बीघा बनाए देलनि। सरकार किछु जमीनपर सिलिंग लगाए देलक, मुदा व्यवस्थापक लोकनि अधिकांश जमीनकेँ वन-विभागकेँ दए गाछ-वृक्ष लगवाए देलनि। अपेक्षाकृत एखनहु ई स्थान समृद्ध अछि।

साहेबरामदास एक सिद्ध पुरुष छलाह आ तेँ हिनकामे चमत्कारिक गुण स्वाभाविक अछि। चमत्कारसँ सम्बन्धित अनेक कथा हिनकासँ जुड़ल अछि, जाहिमे एक चमत्कारक उल्लेख करब हम उचित बुझैत छी, जे हिनक अन्तः साक्ष्यसँ जुड़ल अछि।

राजा नरेन्द्र सिंहक समयमे पटनाक कोनो मुसलमान नवाब मिथिलापर आक्रमण कए देलक। राजा नरेन्द्र सिंहक सेना ओ नवाबक सेनाक बीच घोर संग्राम भेल, जाहिमे अपार धन-जनक क्षति भेल छल, मुदा राजा नरेन्द्र सिंह ओहिमे स्वयं वीरतापूर्वक युद्ध कएलनि आ शत्रु सेनाकेँ पराजित कएल। ओहि समयमे महात्मा साहेब रामदास नरेन्द्र सिंहक विजयी होएबाक कामना स्वरूप श्रीकृष्णसँ प्रार्थना कएलनि-

 

“साहेब गिरधर हरहु नरेन्द्र दुःख,

करहु सुखित मिथिलेशहि रे की”।

 

एहिपर क्रुद्ध भए नवाब हिनका बन्दी बनाए पटनाक कारागारमे बन्द कए देलनि। साहेब रामदास योगबलेँ सभ दिन गंगा-स्नान, संध्या-तर्पण, पूजा-पाठ आदि गंगहि तटपर कएल करथि। कारागारमे रहितहुँ ई क्रम हिनक निरन्तर चलैत रहलनि। लोक सभ हिनका गंगा तटपर सभ दिन देखैत छलनि। नवाबकेँ कोना ने कोना एहि बातक जानकारी भेट गेलनि। नवाबकेँ तँ विश्वास नहि भेलनि तथापि हुनका अपन कर्मचारी सभपर संदेह भेलनि आ ओऽ अपनेसँ कारागारमे ताला लगाए देलनि। तथापि साहेब रामदासक गंगा-स्नानक क्रम नहि टुटलनि। अन्तमे नवाब साहेबरामदासक पएरमे बेड़ी बान्हि कारागारमे ताला लगाए देलनि। साहेबरामदास तत्क्षणहि करुणाद्र भए अपन आराध्य देव श्री कृष्णकेँ पुकारलनि-

 

“अब न चाहिए अति देर प्रभुजी,

अब न चाहिए अति देर।

विप्र-धेनु-महि विकल सन्त जन,

लियो है असुरगण घेरि”।

 

गविते छलाह की पएरक बेड़ी ओ फाटकक ताला आदि सभ टूटिकए खसि पड़ल। नवाब आश्चर्य चकित भए गेल। ओ महात्माजीक पएरपर खसि पड़ल। साहेबरामदाससँ क्षमा माँगलक आ बादमे ससम्मान स्वागत कए मिथिला पहुँचाए देल।

एहि तरहक कएक गोट चमत्कार अछि, जेना राजा राघव सिंहक समयमे राजदरभंगामे प्रेत-बाधाकेँ शान्त करब, माटिक भीतकेँ हाँकब। कृष्णाष्टमी, जन्माष्टमी आदि उत्सवक अवसरपर अधिक साधु-सन्तक भीड़ जुटलाक बादो थोड़बहु सामग्रीमे भोजनक अवसरपर भण्डारामे कोनो कमी नहि होएब आदि कतोक चमत्कारिक घटना सभ अछि, जे हिनकासँ जुड़ल अछि। एहि सिद्ध पुरुषक चमत्कारिक घटनासभसँ लोकक हिनका प्रति कतेक श्रद्धा छल से सहजहि अनुमान कएल जाए सकैत अछि।

साहेबरामदास वैरागी वैष्णव-भक्त-कवि छलाह। पदक रचना करब हिनक साधन छल मुदा साध्य तँ एकमात्र छल भगवान विष्णुक भजन-कीर्तन करब। कहल जाइत अछि जे ओऽ अपनहि पदक रचना कए सभ दिन भगवानक भजन-कीर्तन कएल करथि। ओऽ भक्तिमार्गी छलाह आ तेँ भक्ति-मार्गक सिद्धांतक अनुरूप पदक रचना कएल करथि। भक्ति मार्गक सभ रसक पदरूपमे रचना कएलनि, मुदा प्रधान रस “मधुरं” रस सएह अछि। भगवानक कोनो एक रूपक ओऽ आग्रही नहि, सगुण-निर्गुण दुनू रूपमे मानैत छलाह, जे अपन मनोगत भाव कवितामध्य व्यक्त कएने छथि।

 

“निर्गुण सगुण पुरुष भगवान, बुझि कहु साहेब धरइछ ध्यान”।

“धैरज धरिअ मिलत तोर कन्त, साहेब ओ प्रभु पुरुष अनन्त”।

 

साहेब रामदासक यद्यपि एकमात्र पदावली उपलब्ध अछि, जाहिमे ४७८ टा पद संकलित अछि। मुदा ईएह पदावली हुनक यशकेँ अक्षुण्ण बनाए रखबामे सभ तरहेँ समर्थ अछि। भक्तिक प्रायः सभ विषयपर पदक रचना कएने छथि, यथा- कृष्ण-जन्म, वात्सल्य, वंशीवादन, संयोग-श्रृंगार, रास-लीला, झुलोत्सव आदि। रासलीला परक जेहन पद सभक ई रचना कएने छथि से प्रायः मैथिलीमे आन केओ कवि नहि कएने छथि। हिनक रास-लीला परक पदक विवेचन स्वतंत्र रूपेँ कएल जाए सकैत अछि। कृष्ण-प्रेमक अनन्यता, भक्ति प्रवणता ओ प्रसाद गुण हिनक काव्यक मुख्य गुण कहल जाए सकैत अछि। ऋतुगीत, दिन-रातिक भिन्न-भिन्न समयोपयोगी पदक रचना, जेना-प्राती, सारंग, ललित, विहाग आदिक रचना कएल करथि।

मिथिला पञ्चदेवोपासक सभ दिनसँ रहल अछि। साहेब रामदासक रचनामे सेहो भक्तिक विविध-रूपक दर्शन होइत अछि। कृष्णक तँ ई अनन्य भक्त छलाह मुदा आनो-आन देवी-देवता परक पदक रचना कएने छथि। हिनक हनुमानक फागु परक कविता देखल जाए सकैत अछि। एकरा सन्त लोकनिक फागु सेहो कहल जाए सकैछ-

 

“प्रवल अनिल कपि कौतुक साजल लंका कएल प्रयाण।

कनक अटारी कए असवारी छाड़थि अगनिक वाण॥

जरए लंक कपि खेलए फगुआ, उड़ए गगन अंगार।

धुँआ वाढ़ि अकासहि लागल दिवसहि भेल अन्धार”।

 

हिनक रचित एकटा महादेवक गीत सेहो अछि, जकर उल्लेख डॉ. रामदेव झा अपन “शैव साहित्यक भूमिका” नामक ग्रन्थमे कएने छथि-

 

“ पुछइत फिरइत गौरा वटिया हे राम।

कहु हे माइ, जाइत देखल मोर भंगिया हे राम॥

हाथ भसम केर गोला हे राम।

वरद रे चढ़ि कोन नगर गेल भोला हे राम”॥

 

विरहिणी व्रजाङ्गनाक मनोदशाक एक विलक्षण रूप एहि ठाम सेहो देखल जाए सकैत अछि:

“कमल नयन मनमोहन रे कहि गेल अनेक।

कतेक दिवस भए राखब रे हुनि वचनक टेक॥

के पतिआ लए जाएत रे जहँ वसु नन्दलाल।

लोचन हमर सतओलनि रे छतिआ दए शाल॥

जहँ-जहँ हरिक सिंहासन आसन जेहिठाम।

हमहु मरब हरि-हरि कै मेटि जाएत पीर॥

आदि”

 

मिथिलाक सन्गीत परम्परा अति प्राचीन ओ समृद्ध अछि। संगीतक रचना तँ विद्यापति ओ हुनकहुँसँ पूर्व होइत आएल अछि, मुदा रहस्यवादी संगीत-काव्य-रचना नवीन रूपमे आएल अछि, जकर प्रवर्तक साधु-सन्त लोकनि भेलाह। जाहिमे सन्त साहेब रामदासक स्थान अग्रगण्य अछि। हिनका लोकनिक रचनाक प्रभाव प्रायः सभ वर्गपर पड़ल। हिनक प्रायः सभ कवितामे रागक उल्लेख अछि। अतः एहिपर संगीत-शास्त्रक अनुकूल शोध-कार्य कएल जएबाक आवश्यकता अछि।

साहेब रामदास परम वैरागी सुच्चा साधु छलाह, भक्त छलाह आ तेँ हिनक भाषापर सधुक्करी ओ तत्काल प्रचलित व्रजभाषाक किछु प्रभाव सेहो पड़ल अछि, तथापि हुनक जे पदावली उपलब्ध अछि से मैथिली साहित्यकेँ समृद्ध बनएबामे अपन महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कएने अछि। भक्ति-भावनाक सरलता ओ सहजताक दृष्टिएँ हिनक भाषा सरल ओ सहज अछि। भक्ति-भावना परक एहन कविता मैथिली-साहित्यमे प्रायः दुर्लभ अछि। हिनक भक्ति परक गीत एखनहु मिथिलाक गाम-घरमे बुढ़-बुढ़ानुसक ठोरपर अनुवर्तमान अछि, जकर संकलन करब परम आवश्यक अछि।


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