मायानन्द मिश्र
अहाँ की छी
अहाँ प्रलोभनक नाक काट’बला मर्यादा नञि छी
नग्नताकेँ आवरण दैबला नञि छी
सँतुलन राख’बला
ट्रैफिक गाइड जकाँ चौबटियापर ठाढ
दुनू हाथ उठौने अहिँसा नञि छी।
अहाँ छी
कोडोपैरीन खा–खा कऽ तत्काल अपन मथदुखी केँ दबबऽ बला क्षुब्ध हिमालय।
अहाँ छी अपन खण्डित रसनाकेँ दाबि
चुपचाप कान’बला सिन्धु।
वस्तुतः अहाँ छी एकटा बिन्दु
जाहिठामसँ अनेक रेखा तँ खीचल जा सकैछ
किन्तु ओ सबटा दुर्जेय चट्टानक
कोनो विराट अन्हार गुफाक अंतहीन घाटीमे
जा क’ समाप्त भ’ जाइत अछि
सरिपहुँ ई प्रश्न अछि जे अहाँ की छी?
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